रांची। झारखंड हाई कोर्ट ने एक अहम निर्णय में कहा है कि राज्य सरकार के किसी एक विभाग द्वारा राज्य के ही दूसरे विभाग के खिलाफ रिट याचिका दाखिल नहीं की जा सकती। अदालत ने इसे सुनवाई योग्य नहीं मानते हुए याचिका खारिज कर दी है। यह फैसला तमरिया जाति को मुंडा जनजाति की उपजाति के रूप में मान्यता दिए जाने से संबंधित एक विवाद के संदर्भ में आया है।

क्या है पूरा मामला?

यह विवाद तब शुरू हुआ जब कार्मिक प्रशासनिक सुधार एवं राजभाषा विभाग ने एक रिट याचिका के माध्यम से आदिवासी कल्याण विभाग के तहत गठित जाति छानबीन समिति की रिपोर्ट को हाई कोर्ट में चुनौती दी। इस समिति ने वर्ष 2016 में अपनी जांच रिपोर्ट में कहा था कि तमरिया जाति, मुंडा जनजाति की एक उप-श्रेणी (sub-tribe) है और इस प्रकार से यह अनुसूचित जनजाति (ST) श्रेणी में आती है।

इस रिपोर्ट के आधार पर कानू राम नाग नामक व्यक्ति को द्वितीय जेपीएससी परीक्षा में एसटी कोटे के तहत उप निदेशक पद पर नियुक्त किया गया था। हालांकि, बाद में कार्मिक विभाग ने इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर सवाल उठाते हुए इसे अदालत में चुनौती दी थी।

अदालत ने क्यों खारिज की याचिका?

न्यायमूर्ति गौतम कुमार चौधरी की एकल पीठ ने सुनवाई करते हुए कहा कि एक ही राज्य के दो विभागों के बीच याचिका स्वीकार्य नहीं होती, क्योंकि राज्य एक इकाई के रूप में कार्य करता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि—

“यदि राज्य के विभिन्न अंग आपस में असहमति रखते हैं, तो इसका समाधान आंतरिक प्रक्रिया से किया जाना चाहिए, न कि अदालत के रिट अधिकार क्षेत्र में।”

अदालत ने यह भी कहा कि जाति छानबीन समिति द्वारा दिए गए निष्कर्ष तथ्यों पर आधारित हैं, जिन्हें रिट याचिका के जरिए चुनौती नहीं दी जा सकती। यदि राज्य को लगता है कि समिति की रिपोर्ट में तथ्यात्मक त्रुटि है, तो घोषणात्मक वाद (Declaratory Suit) दायर किया जा सकता है।

संविधान का उल्लेख और विभागीय तर्क

कार्मिक विभाग ने अदालत में तर्क रखा कि संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत केवल वही जातियाँ अनुसूचित जनजातियों की सूची में आती हैं जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित किया गया हो। उनका कहना था कि तमरिया जाति का नाम इस सूची में सीधे तौर पर नहीं है, इसलिए इसकी वैधता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

हालांकि, अदालत ने समिति की रिपोर्ट को संतोषजनक मानते हुए यह कहा कि रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से तमरिया को मुंडा की उपजाति बताया गया है, जो संविधान की अनुसूची के दायरे में आता है।

इस फैसले के मायने क्या हैं?

  • यह निर्णय साफ करता है कि राज्य के अंदर विभागीय टकराव का समाधान न्यायिक प्रक्रिया की बजाय आंतरिक चर्चा या अन्य वैधानिक उपायों से किया जाना चाहिए।
  • यह भी स्पष्ट हुआ कि जातीय मान्यता जैसे विषयों में समिति के निष्कर्ष को तथ्यों के आधार पर देखा जाएगा, न कि संविधान के अनुच्छेद की सतही व्याख्या के आधार पर।
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