लड़कियों के भागने के पीछे प्रेम प्रसंग सबसे बड़ा कारण, पुलिस के सामने चुनौती बन रही बरामदगी की प्रक्रिया

झारखंड का औद्योगिक नगर जमशेदपुर इस समय नाबालिगों की गुमशुदगी की बढ़ती घटनाओं को लेकर चिंता में है। स्थानीय पुलिस के आंकड़े चौंकाने वाले हैं, जो दर्शाते हैं कि हर चार दिन में एक नाबालिग गायब हो रहा है। वर्ष 2024 के जनवरी से अक्टूबर महीने तक 75 नाबालिगों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज की जा चुकी है। सभी मामलों में पुलिस ने अपहरण की धाराओं के तहत केस दर्ज किया है।

लड़कियों की संख्या लड़कों से कहीं अधिक

पुलिस रिपोर्टों के मुताबिक, लापता नाबालिगों में लड़कियों की संख्या लड़कों से दो गुना से अधिक है। खास बात यह है कि इनमें से करीब 80 प्रतिशत लड़कियां अपने प्रेम संबंधों के चलते घर छोड़ देती हैं। वहीं, 10 प्रतिशत मामलों में पारिवारिक तनाव और शेष 10 प्रतिशत में बाल तस्करी जैसी वजहें सामने आई हैं। दूसरी ओर, अधिकतर लड़के पारिवारिक नाराजगी या रोजगार की तलाश में घर छोड़ने की बात स्वीकार करते हैं।

हर साल बढ़ रही घटनाएं

जिले में नाबालिगों के गायब होने की घटनाएं वर्ष दर वर्ष बढ़ रही हैं। वर्ष 2020 में महामारी के चलते जहां केवल 58 मामले दर्ज किए गए थे, वहीं 2021 में यह आंकड़ा 161 तक पहुंच गया। इसके बाद 2022 में 137 और 2023 में 98 मामले दर्ज हुए। वर्तमान वर्ष में अब तक 75 मामले सामने आ चुके हैं और साल के दो महीने अभी बाकी हैं, जिससे यह संख्या और बढ़ सकती है।

बड़ी चुनौतियां पुलिस के सामने

इन मामलों में बरामदगी की प्रक्रिया पुलिस के लिए आसान नहीं होती। अधिकतर नाबालिग लड़कियां अपने प्रेमी के साथ भागकर हैदराबाद, कोलकाता, दिल्ली, पुणे, मुंबई, बेंगलुरु और सूरत जैसे बड़े शहरों का रुख करती हैं। इन दूरस्थ शहरों में पुलिस को न केवल उनकी तलाश करनी होती है, बल्कि वहां पहुंचने, रहने और महिला पुलिसकर्मियों को साथ ले जाने की व्यवस्था भी करनी पड़ती है।

संसाधनों की कमी, जेब से खर्च कर रही पुलिस

पुलिसकर्मियों के अनुसार, नाबालिगों की बरामदगी के लिए सरकार द्वारा मिलने वाली आर्थिक सहायता अपर्याप्त है। एक लड़की को खोजने और लाने में 10 से 20 हजार रुपये तक का खर्च आता है। कई बार यह खर्च पुलिसकर्मी अपनी जेब से वहन करते हैं, जिससे उनकी कार्यशैली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

निष्कर्ष

जमशेदपुर में नाबालिगों के लापता होने की घटनाएं केवल अपराध के आंकड़े नहीं हैं, बल्कि यह समाज में हो रहे मानसिक, पारिवारिक और सामाजिक असंतुलन का संकेत भी हैं। समय रहते इन घटनाओं की तह में जाकर समाधान खोजना न केवल प्रशासन की जिम्मेदारी है, बल्कि समाज की भी।

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