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धर्म की हमारी समझ

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धर्म का एक भौतिक पक्ष है, और एक आध्यात्मिक, एक सैद्धांतिक और एक व्यावहारिक, एक सार्विक और एक स्थानीय, एक शाश्वत और एक परिवर्तनशील, एक शोषक और एक पोषक, और अंततः एक सकारात्मक और एक नकारात्मक। बात धर्म की हो तो तुरंत हमारे दिमाग में ‘भगवान’ की संकल्पना कौंधती है, पर हमें यह भी जानना चाहिए कि धर्म में ईश्वर या कोई आराध्य देव हो ऐसी अनिवार्यता नहीं रही है। यानी बिना भगवान या आराध्य देव के भी धर्म चरितार्थ हो सकता है। भारत में तो नास्तिक धर्मों की परंपरा भी कायम रही है।

भारतीय चिंतन परंपरा में धर्म को महज संस्थागत रूप में या व्यक्तिगत पूजा-अर्चना की विधि के रूप में न लेकर, उसे उसके विशुद्ध रूप में समझने की कोशिश की गई है। ‘धृ’ धातु से बने धर्म का अर्थ माना गया है- धारण करने अर्थात व्यवहार के वे नियम एवं सिद्धांत जो समाज के आधार होते हैं, जिन्हें मनुष्य धारण करता है या जो मनुष्यों को धारण करने चाहिए। वे कौन सी चीजें हैं जो मनुष्य धारण करते हैं? आदमी के इंसान बनने की प्रक्रिया उसके सांस्कृतिक होते जाने की भी प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया में वह मूल्यों को धारण करता है, दया, करुणा, प्रेम, परोपकार, ईमानदारी, भाईचारा, साहचर्य आदि धारण करता हुआ मनुष्य अधिक सांस्कृतिक और सामुदायिक होने लगता है। यानि धर्म परायण मनुष्य की पहचान एक नैतिक, सामाजिक और सांसारिक मनुष्य के बारे में अधिक है। आप महात्मा गांधी का उदाहरण ले सकते हैं, गांधी के जीवन की धर्म परायणता उन्हें मनुष्यों की वेदना और पीड़ा से मुक्ति की चाह से जोड़ती है और इतिहास गवाह है कि गांधी ने किस तरह बिना किसी भेदभाव के वैष्णव जन (ईश्वर की संतानों) की सेवा में अपनी जान कुर्बान की। धर्म मनुष्य को नैतिकता और न्याय की राह पर ले जाता है इसे एक दूसरे उदाहरण से भी समझ सकते हैं। अवध क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति के साथ हिंसा करने, उसे नीचा दिखाने और उसका हक छीन लेने पर बड़े बुजुर्ग कहा करते हैं- ‘ई धरम न होय’ (यह धर्म नहीं है) या ‘अधरम काहे करत बाटेया’ (अधर्म क्यों कर रहे हों) यानी ‘धर्म’ एक भावना है जो सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है, जो किसी के साथ अन्याय करने से रोकती है, किसी का हक छीनने से रोकती है। एक अन्य उदाहरण से इसे और भी सहजता से समझा जा सकता है। अक्सर आपने हाइवे या सकड़ों के किनारे टंगे बोर्डों में ‘धर्मकाँटा’ लिखा देखा होगा जहां पर गन्ने या अन्य उपज की तौल होती है। यहाँ ‘धर्मकाँटा’ लिखा होने का निहितार्थ यह हो सकता है कि यहाँ तौल के दौरान किसान के साथ अन्याय नहीं होगा, यानी उसकी तौल में कोई त्रुटि नहीं होगी। यहाँ त्रुटिहीन तौल एक नैतिक कर्तव्य की तरह है, जो धर्मकाँटे का मुख्य ध्येय है। यहाँ धर्म का अभिप्राय संगठित धर्म से भी कत्तई नहीं है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है ‘परहित सरसि धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’ यानी दूसरों का उपकार करने के समान कोई धर्म नहीं है, और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बड़ी कोई नीचता नहीं है।

धर्म से अभिप्राय जीवन जीने के एक उत्कृष्ट मार्ग से भी लगाया जाता है। महाभारत में धर्म को उस सिद्धांत की संज्ञा दी गई है जो नैतिक तथा आध्यात्मिक व्यवस्था के आधार पर समाज को कायम रखता है। महाभारत में ही ‘अहिंसा परमो धर्मः’ कहा गया। वैदिक काल में धर्म को ‘रित’ अर्थात जो नैतिक आचरण का प्रतीक है, बताया गया है। शास्त्रों में धर्म के दस लक्षण माने गए हैं- धृति (संकल्प), क्षमा, दमः (आत्मसंयम), अस्तेय (चोरी न करना), शौचम (आंतरिक एवं बाह्य शुद्धता), इंद्रिय निग्रह, धी: (भक्ति), विद्या, सत्य, अक्रोध। इन लक्षणों के आधार पर ही धर्म से जुड़े व्यक्तिगत व्यवहार के नियम निर्धारित किए गए। व्यक्ति के देश, कुल, जाति, वर्ग एवं निजी जीवन के प्रति कर्तव्यों को देश-धर्म, कुल-धर्म, जाति-धर्म, वर्ण-धर्म, आश्रम-धर्म के रूप में वर्णित किया गया। इस दृष्टि से व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक पहलू धर्म पर आधारित माना गया। यह भी कहा गया कि ‘शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम’, यानी धर्म को जीवन में उतारने का शरीर साधन है।

‘धर्म’ पहला पुरुषार्थ था। इसका तात्पर्य था- कुदरती नियमों और मर्यादाओं की व्यवस्था को समझना ताकि दूसरे पुरुषार्थ यानी ‘अर्थ’ कमाने के लायक हुआ जा सके। यह समाज और इसकी उत्पादन प्रक्रिया एवं शक्तियों में हिस्सेदारी होने का मामला था। इससे तीसरे पुरुषार्थ यानी ‘काम’ की सिद्धि हो सकती थी और यदि यह तीनों पुरुषार्थ ठीक से हो सके तो ‘मोक्ष’ मुमकिन था क्योंकि वह जीवन के आधार शरीर और उससे सिद्ध ‘श्रम जनित अर्थ और काम’ के सामाजिक व्यवहारों का सार था।

धर्म का संस्थानीकरण और अंतरधार्मिक टकराहट:

उल्लेखनीय की मानव सभ्यता के विकास में धर्म के संस्थानीकरण की बड़ी अर्थवत्ता थी। कोई भी विचार बिना संस्था के निर्माण के पूरी तरह चरितार्थ नहीं हो सकता। संस्थाओं ने एक ओर तो विचारों को संगठित और विस्तारित किया तो दूसरी ओर उन्हें विकृत और कुंठित भी किया। यही हाल तब भी हुआ जब धर्म का संस्थानीकरण हुआ। सभी धर्म में पुरोहित, पादरी, मुल्ला एवं धर्मगुरु होते गए। शुरुआत में धर्म के सबसे मूर्त स्वरूप पूजा, त्यौहार, अनुष्ठान एवं संस्कार तो व्यक्ति के अपने निजी मामले होते थे और अधिक से अधिक व्यक्ति इन्हें सामुदायिक स्तर पर मानता था पर अब तो नितांत वैयक्तिक पूजा का भी व्यवसायीकरण हो चुका है। एक समय था जब त्योहारों का एक धार्मिक पक्ष होता था और एक सामाजिक पक्ष पर अब त्यौहार मूलतः आर्थिक होते जा रहे हैं। आर्थिक पक्ष को अधिक व्यवस्थित करने के लिए धर्म का सांगठनिक स्वरूप समृद्ध होता जा रहा है, पर इसके मूल में है ‘मुनाफा’ और जिससे पनपता है ‘भ्रष्टाचार’। यहीं पर आकर धर्म का संस्थानिक स्वरूप भ्रष्ट होता जा रहा है।

संगठित धर्म का आविर्भाव जीवन की सुरक्षा और अनिश्चय के कारण हुआ होगा पर आज जब जीवन में सुरक्षा की धारणा और निश्चितता विज्ञान, तकनीकी और संपदा की प्रगति से बढ़ती जा रही है तब भी मनुष्य अनिश्चित और असुरक्षित है इसीलिए विकसित और विकास के नए-नए कीर्तिमानों के बाद भी संगठित धर्म की अपनी जगह बनी ही रह गई। भारत में तो धर्म कर्मकांड का पर्याय बन गया लेकिन भारत में 19वीं शताब्दी में सामाजिक धार्मिक पुनर्जागरण आंदोलन ने धर्म के पुरातन नैतिक स्वरूप को उजागर किया और तब से सभी धर्मों की अंतर्निहित एकता पर बाल दिया जाना शुरू हुआ। पर इस अंतर्निहित एकता की जन सामान्य में व्याप्तता न हो पाने के कारण इसकी समझ भी आम जन को कम ही हो पाई जिसका परिणाम रहा ‘धर्मांधता’ और कट्टरपन। भारत में जिसका इतिहास कमोवेश सनातन हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म की टकराहट के रूप में, हिंदुओं के अलग अलग संप्रदायों क्रमशः शैव, वैष्णव, कापालिक और संन्यासियों की आपसी टकराहटों में, और अंततः सबसे अधिक व्याप्त हिंदू और मुस्लिमों की टकराहटों में दिखाई पड़ता है। वैश्विक स्तर पर तो यह सबसे अधिक ईसाईयत में देखी गई है।

वॉल्तेयर ने ईसाई धर्म में व्याप्त कट्टरपन और संकीर्णताओं के बारे में एक बार कहा था कि ‘ईसाई तो एक ही था और उसे भी सलीब पर चढ़ा दिया गया’। जिस ईसा ने स्वयं कहा था कि ‘जो तुम्हारे बाएँ गाल पर तमाचा मारे उसके आगे दायाँ गाल भी आगे कर दो’ उसके अनुयायियों ने धर्मांधता का भयानक प्रमाण दिया है। पहले तो ढाई सौ वर्षों (1050 ईस्वी से 1300 ईस्वी तक) के क्रूसेड (धर्मयुद्ध) के दौरान और फिर धर्म सुधार आंदोलन के दौरान ईसाइयों के ही साथ, विशेषकर प्रोटेस्टैंट के साथ। और उसके बाद तो ईसाई श्रेष्ठताबोध तीन सौ सालों तक उपनिवेशवाद और यहूदी विरोध से होता हुआ पिछले चार दशकों में मुस्लिम विरोध तक आ पहुंचा है।

धर्म का संस्कृति से क्या रिश्ता है?

धर्म संस्कृति को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है। धर्म है तो एक सांस्कृतिक परिघटना ही पर संस्कृति में सामाजिक पक्ष निर्णायक है और तो धर्म में वैयक्तिक। मुक्ति दोनों का ही अंतिम लक्ष्य है पर दोनों की मुक्ति की प्रकृति भिन्न है। धर्म में अधिक से अधिक व्यक्ति की आध्यात्मिक मुक्ति की बात होती है, जबकि संस्कृति व्यक्ति के साथ समष्टि की मुक्ति का आदर्श और लक्ष्य हमारे सामने रखती है।

संस्कृति इतिहास का वह सार संकलन है जिसमें मनुष्य के बौद्धिक व शारीरिक आदि सभी प्रकार के श्रम, आत्मिक उपलब्धियां व अनुभव आदि सब सन्निहित होते हैं। दो महान मानवविज्ञानियों की धर्म और संस्कृति से जुड़ी परिभाषाएं यदि हम देखें तो एक तरफ प्रसिद्ध मनोविज्ञानी एडवर्ड बर्नेट टायलर ने अपनी किताब प्रीमिटिव कल्चर (1971) में संस्कृति के बारे में लिखा है कि “संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें मनुष्य किसी समाज का सदस्य होने के नाते ज्ञान, विश्वास, कला, नियम, नैतिकता, रीति रिवाज, क्षमताएं और आदतें ग्रहण करता है’’। वहीं दूसरी तरफ धर्म को मानवविज्ञानियों ने विश्वासों की प्रणाली माना है जो अपनी संपूर्णता में मूल्य का निर्माण करती है। मनुष्य की विश्वास प्रणाली और उससे उपजे संयोजित मूल्यों ने आगे चलकर ज्ञान और व्यवहार को संस्थागत किया। इसके सहारे ही मनुष्य अपने सामाजिक संबंध, नातेदारी, परिवार, विवाह, प्रेम, करुणा, दया, भाईचारा, आदि संस्थाओं को निर्मित किया होगा। धर्म की इसी व्याख्या को अर्थ देने के लिए प्रसिद्ध मानवविज्ञानी ब्राउनसिला मेलिनोवस्की का जिक्र आवश्यक है वे लिखते हैं कि “धर्म क्रिया का एक तरीका एवं विश्वासों की एक व्यवस्था है जो एक सांस्कृतिक प्रघटना के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभव भी है।” इस प्रकार हम देख सकते हैं कि धर्म एवं संस्कृति आपस में किस प्रकार अंतर्संबंध हैं एवं एक सिक्के के दो पहलू की तरह समाज में समानांतर विद्यमान रहते हैं। पर बीसवीं सदी में जब ‘संस्कृति’ एक उत्पाद में तब्दील होना शुरू हुई तब से संस्कृति के जरिए भी मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति ने जन्म लिया। बीसवीं सदी की शुरुआत में ही वर्जीनिया वुल्फ़ ने लिखा था– ‘मानव चरित्र बदल गया है’। उनका तात्पर्य था कि सारा मूल्य विधान बदल गया है, परिश्रम, मितव्ययता, नागरिक चेतना, आत्म नियंत्रण और नैतिकता की जगह अनिवार्य खर्च, राजनीतिक निष्क्रियता और निर्बंध संस्कृति लेती जा रही है।

पूंजीवाद ने धर्म एवं संस्कृति का समय-समय पर फायदे के लिए पण्यीकरण किया है। औद्योगिक युग के खात्मे के साथ उत्तर औद्योगिक एवं सूचना युग की शुरुआत में पूंजीवाद ने अपना केचुल छोड़ नया स्वरूप धारण किया जिसे फ्रेडरिक जेमसन “विलंबित पूंजीवाद” कहते हैं। इसके अंतर्गत पूंजीवाद ने संस्कृति को ही एक कमोडिटी बना दिया है। अन्य वस्तुओं की तरह संस्कृति का भी उत्पादन होने लगा है और अब संस्कृति ही बेची जाती है। यहां फेडरिक जेमसन से एक कदम आगे बढ़कर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि हमारे समय का पूंजीवादी बाजार संस्कृति के साथ-साथ धार्मिक आस्था, विश्वास एवं आख्यानों का भी पण्यीकरण कर रहा है। हमारे समय के बाजार में संस्कृति से उपजे सौंदर्यपरक उत्पादन वस्तु उत्पादन के साथ जुड़ गए हैं। अब जैसे ही किसी धार्मिक विश्वास, भावना, आख्यान की बातचीत होती है या उसका चलन बढ़ता है, देखते ही देखते उसके अनुकूल निर्मित फैशन की वस्तुएं बाजार में आ जाती हैं। जेमसन कहते हैं कि ‘बाजार अब सांस्कृतिक संकेतों और प्रतिकृतियों (simulation) के माध्यम से वस्तुओं की बिक्री करता है। जिसमें वस्तुओं को नहीं बेचा जाता बल्कि प्रतिकृतियों या सांस्कृतिक संकेतों को बेचा जाता है’। पूंजीवाद द्वारा संस्कृति और धर्म के इस घालमेल की व्याख्या करते हुए जेमसन अनुमान लगाते हैं कि ‘पूंजीवाद यदि इसी रास्ते चलता रहा तो एक दिन यह संपूर्ण संस्कृति को ही निगल जाएगा’।

अंतिम रूप से शुद्ध लिबरल चिंतक कहे जाने वाले प्रख्यात फ्रांसीसी विचारक अलेक्सी द तोक्विल ने उन्नीसवीं सदी में अमेरिकी नागरिक के बारे में लिखा था कि ‘वह अपने अंतस में अपने ही लिए अस्तित्व में रहता है’ (He exists in himself for himself alone)। यह कथन आज पूरी दुनिया के मनुष्यों के बारे में कहा जा सकता है क्योंकि आज मनुष्य का यह चरित्र सर्वव्यापी हो चुका है, आज उपभोक्ता, समुदाय से सिमट रहा है, उससे दूरियाँ बना रहा है, उससे स्वयं को काट रहा है, वह महज एक न्यूक्लियर इकाई में तब्दील होता जा रहा है, उसमें सार्वजनिक जागरूकता और नागरिक चेतना का क्षरण होता जा रहा है।

ऐसे में आज स्वयं धर्म भी एक मुनाफा केंद्रित सांस्कृतिक उत्पाद बन चुका है। शमशेर बहादुर सिंह याद आते हैं, बकौल उनके ‘इल्मो-हिकमत, दीनों-ईमाँ, मुल्को-दौलत, हुस्नों-इश्क: आपको बाजार से जो कहिए ला देता हूँ मैं!’ यानी संस्कृति के भीतर जो ‘मुक्त’ करने का भाव था वह लुप्त होता जा रहा है। अपनी शुरुआत में यह सांस्कृतिक आंदोलन मुक्तिकामी था। जैसे जब यूरोप में 16वीं सदी से धर्म केंद्रित समाज मानव केंद्रित समाज में रूपांतरित होने लगा था, तभी से एक प्रकार का असाधारण सांस्कृतिक उद्वेलन शुरू हुआ जिसमें भाषा, साहित्य, कला, संगीत, स्थापत्य, वस्तु, चित्रकला, खगोल, विज्ञान, राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि क्षेत्रों में परिवर्तन शुरू हो गए थे, इस परिघटना को पहले पुनर्जागरण और फिर इनसे स्थापित मूल्यों और विचार को आधुनिकता कहा गया है। हालांकि यह कहें कि इस आधुनिकता के सांस्कृतिक उद्वेलन ने पूरी यूरोपीय जगत को मुक्त कर दिया ऐसा नहीं था, इसके लिए उन्हें कई क्रांतियों का इंतजार करना पड़ा और आज भी काफी हद तक यह ‘मुक्ति’ वहाँ भी आकांक्षी है। भारत में धर्म-केंद्रिता किसी न किसी रूप में आज भी जारी है। भारत के पूरी तरह आधुनिक ना हो पाने का एक कारण यह भी है। आज भी धर्म को संस्कृत का पर्याय या कम से कम धर्म की संस्कृति से बड़ी हैसियत और अर्थवत्ता समझी जाती है। और यह घाल-मेल जब राष्ट्र के साथ कर दिया जाता है तब वह और घातक होता है। राजनीति द्वारा धर्म और धर्म द्वारा राजनीति का दुरुपयोग इतिहास में बड़े सांप्रदायिक संघर्षों के रूप में देखा और जाना गया है ही।

कार्ल मार्क्स ने धर्म की जो सृजनात्मक परिभाषा (धर्म उत्पीड़ितों की आह है, हृदयविहीन दुनिया का हृदय है, आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है, यह जनता की अफीम है) की है, उसमें धर्म की एक सकारात्मक भूमिका का स्वीकार निहित है। तो क्या धर्म केवल दूसरी दुनिया की ही बात करता है? क्या धर्म का इस दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है? क्या धर्म पाप-पुण्य की, उसके स्वर्ग-नरक में ही चरितार्थ होने की बात करता है? और इस धरती की अच्छाइयों-बुराइयों से उसका कोई सरोकार नहीं? क्या धर्म मनुष्य को गलत रास्ते पर चलने से नहीं रोकता? और क्यों विवेकानंद ने रोटी को ही सबसे बड़ा धर्म कहा था? अंग्रेजी में एक कहावत है ‘द मोर यू हैव द लेस यू आर’। यानी व्यक्ति के पास जितना अधिक होता जाता है वह उतना ही कमतर होता जाता है यानी असली चुनौती आदमी के इंसान बनने की है, आदमी के सांस्कृतिक बनने की है। मार्क्स ने उन वंचितों के लिए धर्म को उनकी आह बताया था जिसके लिए राज्य एक शोषण का यंत्र है, राज्य उन्हें गरीब रखता है, उन्हें उनका हक नहीं देता ऐसे में वंचितों को धर्म का सहारा मिलता है। मार्क्स ने धर्म की ऐसी ही चेतना जो मनुष्य को उसके वास्तविक शोषक की पहचान नहीं करने देती, उसे झूठी और भावनात्मक चेतना में कैद रखती है, को ‘क्षद्म चेतना’ (Pseudo consciousness) कहा है। यहाँ मार्क्स वर्ग चेतना की बात करते हैं जो मनुष्य के सांस्कृतिक होते जाने और अपने वजूद को अधिक समझते जाने का परिचायक है और जो अंततः मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। लैटिन अमेरिकी देशों में कई ईसाई पादरियों ने धर्म की इसी धारणा के आधार पर पूंजीवादी शोषण से मुक्ति का मार्ग ढूंढा था. ब्राजीलियाई कैथोलिक आर्कविशप डोम हेलदेर कामारा का नाम सबसे अहम है जिनका मशहूर कथन है- ‘जब मैं गरीबों को खाना देता हूँ, तब वे मुझे संत कहते हैं। जब मैं पूछता हूँ कि वे गरीब क्यों हैं? तो वे मुझे कम्युनिस्ट कहते हैं?’ (‘When I give food to the poor, they call me a saint. When I ask why they are poor, they call me a communist’)

आज धर्म के एक अनिवार्य स्पेस की तलाश बहुत जरूरी है। कहते हैं कि मूर्ति तो पत्थर में होती है, मूर्तिकार अतिरिक्त पत्थर को काट छांटकर अलग कर देता है और मूर्ति को निखार देता है। इसी तरह से धर्म से यदि आडंबर, पाखंड, झूठी आध्यात्मिकता, स्वर्ग-नरक, शुद्ध-अशुद्ध के पचड़े, कर्मकांड और यहां तक की भाग्य और ईश्वर को हटाकर देखा जाए तो एक स्पेस दिखाई पड़ता है जिसमें मानवीयता नैतिकता सद्गुण करुणा और बृहत्तर सृजनशीलता की खेती की जा सकती है। इसमें कोई भी धार्मिक व्यक्ति छुआछूत और जातिवाद, स्त्रियों का उत्पीड़न, काले गोरे का भेदभाव आदि नहीं करेगा, क्योंकि आस्तिक लोगों के लिए यदि यह मान्यता अहम है कि सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं तो जरूरत है सबके साथ एक जैसा बर्ताव करने की और यदि वे नहीं करेंगे तो अपने ही धर्म को अधर्म पर ले जाएंगे, अपने ही आराध्य का अपमान करेंगे।

निश्चित ही इस तरह एक बेहतर समाज में बेहतर इंसान, एक सुरक्षित समाज में सुरक्षित मानव, एक न्याय संगत समाज में न्याय प्रिय मनुष्य, एक आनंदमई समाज में आनंद प्रेमी आदमी, और एक संतुलित पर्यावरण में एक विवेकशील मनुष्य नए प्रकार का सृजन करेगा। यहाँ हो सकता है कि माता, पिता, पुत्र, पुत्री का धर्म भिन्न-भिन्न हो, पर वह होगा एक ही प्रकार का धर्म ही, पर वह यथास्थितिवादी, अतीतग्रस्त, भाग्यवादी, व्यक्तिकेंद्रित नहीं, बल्कि भविष्योन्मुख, प्रगतिशील, सृजनात्मक और समष्टि केंद्रित होगा।

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