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Home » संवैधानिक मर्यादा बनाम कट्टरपंथी सोच: हफ़ीज़ुल हसन प्रकरण पर मंथन आवश्यक…बाबूलाल मरांडी ने कसा तंज
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संवैधानिक मर्यादा बनाम कट्टरपंथी सोच: हफ़ीज़ुल हसन प्रकरण पर मंथन आवश्यक…बाबूलाल मरांडी ने कसा तंज

हफ़ीज़ुल हसन के बयान ने झारखंड की संवैधानिक व्यवस्था और आदिवासी अस्मिता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं
Priyanshu Jha By Priyanshu JhaApril 14, 2025Updated:April 14, 2025No Comments4 Mins Read
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The Mediawala Express संवाददाता | रांची

झारखंड की सियासत में इन दिनों मंत्री हफ़ीज़ुल हसन के एक बयान को लेकर घमासान मचा हुआ है। उन पर आरोप है कि वे संवैधानिक पद पर रहते हुए निजी धार्मिक विचारों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जो न सिर्फ प्रदेश की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के लिए चुनौती है, बल्कि आदिवासी बहुल क्षेत्रों, विशेषकर संथाल परगना की अस्मिता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।

मामले की संवेदनशीलता को समझते हुए यह आवश्यक है कि इसे केवल एक राजनीतिक बयानबाजी के रूप में नहीं देखा जाए, बल्कि व्यापक सामाजिक और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाए।

संविधान बनाम शरीयत: असली टकराव क्या है?

भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता देता है, लेकिन जब कोई व्यक्ति संवैधानिक पद पर होता है, तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह निजी धार्मिक आग्रहों से ऊपर उठकर कार्य करेगा। यदि कोई मंत्री सार्वजनिक मंचों से शरीयत को संविधान से ऊपर मानने जैसे संकेत देता है, तो यह न केवल असंवैधानिक है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए भी खतरा बनता है।

आदिवासी अस्मिता की अनदेखी?

झारखंड, विशेषकर संथाल परगना, एक विशिष्ट आदिवासी सांस्कृतिक पहचान वाला क्षेत्र है। यदि राज्य सरकार में शामिल कोई मंत्री ऐसी विचारधारा का समर्थन करता है जो इस सांस्कृतिक ताने-बाने से मेल नहीं खाती, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सरकार की प्राथमिकता किसकी है — राज्य के मूल निवासी या राजनीतिक समीकरण?

राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी

इस मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता बाबूलाल मरांडी ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। उनका दावा है कि मंत्री हफ़ीज़ुल हसन गरीबों, दलितों और आदिवासियों के वोट से सत्ता तक पहुंचे और अब इस्लामिक एजेंडा लागू करने की कोशिश कर रहे हैं।

हालांकि, यह वक्त है कि पक्ष-विपक्ष के सभी दल इस विषय पर राजनीतिक रोटियां सेंकने के बजाय आत्ममंथन करें कि क्या ऐसी विचारधाराएं राज्य और देश की लोकतांत्रिक संरचना के लिए हितकारी हैं?

बाबूलाल मरांडी ने क्या कहा?

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी ने मंत्री हफ़ीज़ुल हसन पर तीखा हमला बोला है। उन्होंने कहा:

“मंत्री हफ़ीज़ुल हसन के लिए संविधान नहीं, शरीयत मायने रखता है, क्योंकि ये अपने ‘लक्ष्य’ के प्रति स्पष्ट हैं और सिर्फ अपने कौम के प्रति वफादार हैं।”

“चुनाव के समय इन्होंने गरीब, दलित, आदिवासियों के सामने हाथ जोड़कर वोट मांगा और अब अपना इस्लामिक एजेंडा चलाने की कोशिश कर रहे हैं।”

“हफ़ीज़ुल की यह कट्टर सोच पूरे प्रदेश, विशेषकर संथाल परगना की सांस्कृतिक पहचान और आदिवासी अस्मिता के लिए खतरा बनती जा रही है।”

“संवैधानिक पद पर बैठा कोई भी व्यक्ति यदि कट्टरपंथी विचारधारा को बढ़ावा देता है, तो वह न सिर्फ वर्तमान, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी खतरा उत्पन्न करता है। इस विषय में राजनीतिक सीमाओं से ऊपर उठकर सभी पक्षों के नेताओं को आत्ममंथन करने की जरूरत है।”

“शरीयत, बाबासाहब द्वारा रचित संविधान की मूल भावना के विपरीत है। यदि राहुल गांधी और हेमंत सोरेन में संविधान के प्रति सच्ची आस्था है, तो उन्हें तुरंत हफ़ीज़ुल हसन को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करना चाहिए।”

राहुल गांधी और हेमंत सोरेन की परीक्षा

कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा की साझा सरकार में हफ़ीज़ुल हसन मंत्री पद पर हैं। यदि वाकई राहुल गांधी और हेमंत सोरेन को भारत के संविधान और बाबा साहब आंबेडकर की मूल भावना में आस्था है, तो उन्हें यह तय करना होगा कि क्या एक कट्टरपंथी सोच वाले मंत्री को मंत्रिमंडल में स्थान देना लोकतांत्रिक मर्यादा के अनुकूल है?

निष्कर्ष:

भारत की विविधता इसकी ताकत है, लेकिन जब कोई संवैधानिक पदाधिकारी निजी धार्मिक आग्रहों को सार्वजनिक नीति पर हावी करने की कोशिश करता है, तो यह स्थिति चिंताजनक हो जाती है। ऐसे में सत्ता पक्ष को आत्ममंथन और विपक्ष को रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने की ज़रूरत है — ताकि संविधान की आत्मा सुरक्षित रह सके।

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