झारखंड में माओवादी समस्या के अंत को लेकर एक बार फिर से बड़ी रणनीति सामने आई है। केंद्र सरकार ने जहां 31 मार्च 2026 तक देश से माओवादियों का पूरी तरह सफाया करने का लक्ष्य तय किया है, वहीं झारखंड पुलिस का दावा है कि राज्य में इस वर्ष मानसून से पहले ही माओवादियों का खात्मा कर दिया जाएगा। लेकिन बड़ा सवाल यह है—क्या यह दावा हकीकत में तब्दील होगा या सिर्फ एक राजनीतिक घोषणापत्र बनकर रह जाएगा?
राज्य पुलिस के मुताबिक सारंडा और कोल्हान जैसे इलाकों में लगातार सुरक्षा कैंपों की स्थापना और संयुक्त अभियान के चलते माओवादी अब कुछ सीमित क्षेत्रों तक ही सिमट गए हैं—जैसे टोन्टो और गोईलकेरा। जिन इलाकों को माओवादियों से मुक्त कराया गया है, वहां भी फोकस कर उन्हें दोबारा पनपने से रोकने की रणनीति अपनाई जा रही है।
क्या प्रयाग मांझी की मौत निर्णायक मोड़ है?
बोकारो-गिरिडीह क्षेत्र में माओवादियों की गतिविधियों पर उस समय बड़ा असर पड़ा जब लुगू पहाड़ में प्रयाग मांझी, अरविंद यादव और साहिबराम मांझी समेत आठ माओवादी मुठभेड़ में मारे गए। पुलिस ने दावा किया कि इससे उत्तरी छोटानागपुर ज़ोन में माओवादियों की रीढ़ टूट गई। लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे पूरे संगठन का ढांचा बिखर गया है, या फिर यह सिर्फ एक अस्थायी झटका है?
एक-एक माओवादी पर टारगेट बेस्ट ऑपरेशन
कोल्हान क्षेत्र में मिसिर बेसरा, पतिराम मांझी उर्फ अनल, असीम मंडल, और अजय महतो जैसे शीर्ष माओवादी नेता अभी भी सक्रिय हैं। पुलिस ने इनके खिलाफ टारगेटेड ऑपरेशन की रणनीति अपनाई है। पर क्या सिर्फ टॉप लीडरशिप को खत्म कर देना पर्याप्त है, या नीचे के नेटवर्क को भी जड़ से उखाड़ना होगा?
लेवी वसूली पर डीजीपी की सख्ती – लेकिन जमीनी हालात क्या हैं?
राज्य पुलिस मुख्यालय ने सभी एसपी को स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि लेवी के नाम पर आगजनी और वसूली की घटनाओं पर तत्काल एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई करें। साथ ही साइटों पर सीसीटीवी और इंटेलिजेंस नेटवर्क को मजबूत किया जा रहा है। लेकिन यह योजना कितनी कारगर है, इसका मूल्यांकन ज़मीनी हकीकत बताएगी।
तो क्या माओवाद का अंत निकट है या फिर…?
दावों और रणनीतियों के बीच असली कसौटी यह होगी कि क्या इन ऑपरेशनों का प्रभाव दीर्घकालिक होगा? क्या माओवादी नेटवर्क की जड़ें वाकई उखड़ रही हैं या फिर वे सिर्फ रणनीतिक रूप से छिपे हुए हैं? कहीं यह मानसून पूर्व की “सफाई योजना” सिर्फ एक मीडिया प्लान तो नहीं?