दीनदयाल उपाध्याय
‘संस्कृति’, व्यष्टि और समष्टि दोनों से संबंध रखती है, यद्यपि संस्कृति का भाव मूलतः समष्टिगत होता है। संस्कृति के माध्यम से जीवन के वैशिष्ट्य अर्थात् समाज की आत्मा की अभिव्यक्ति होती है। यह सत्य है कि जिस प्रकार ब्रह्म संपूर्ण सृष्टि के बाद भी दस अंगुल बचा रहता है, उसी प्रकार अनेक व्यक्तियों से मिलकर बना हाेने के बाद भी समाज का अपना अलग अस्तित्व और वैशिष्ट्य होता है। इसके साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि जब समाज क्रियाशील होना चाहता है तो उसे अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण के लिए व्यक्तियों के पुरुषार्थ का ही सहारा लेना पड़ता है। आत्मा अमर है और शरीर नश्वर। किंतु आत्मा शरीर के द्वारा ही कोई काम कर सकती है, उसके बिना नहीं। उसी प्रकार समाज भी व्यक्तियों के बिना काम नहीं कर सकता। अतः संस्कृति मूलतः समष्टिगत होते हुए भी उसका संबंध व्यक्ति से आए बिना रहता नहीं।
व्यक्ति और समाज
अब प्रश्न खड़ा होता है कि व्यक्ति और समाज का परस्पर संबंध क्या? हमें दिखाई देता है कि व्यक्ति एक ही समय में दो प्रकार का अस्तित्व लेकर चलता है। एक ओर तो उसका पूर्णतया पृथक् अस्तित्व है, दूसरी ओर वह समाज के अभिन्न घटक के रूप में भी जाना जाता है। व्यक्ति एक ही समय में दोनों नाते से काम करता है। वह व्यक्ति के नाते भी जीवन प्रकट करता है और समाज के नाते भी। इसलिए दोनों के बीच में योग्य संबंध स्थापित करना बहुत आवश्यक बात हो गई है। दुनिया के समस्त समाजशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों एवं दार्शनिकों के समक्ष यह उपस्थित है। इस बारे में भिन्न-भिन्न मत बने हैं। कहीं तो व्यक्ति को सर्वोपरि माना है और शेष समाज को उसकी इच्छाओं की पूर्ति करने का साधन मात्र माना गया है। अतः उनके यहां व्यक्ति स्वातंत्र्य को ही समस्त सामाजिक गठन का केंद्रबिंदु माना है। यह विचार पश्चिम का है। दूसरी ओर व्यक्ति का समाज से भिन्न कोई अस्तित्व माना ही नहीं। उनका मत है कि समाज ठीक रहा तो व्यक्ति अपने आप ठीक हो जाता है। व्यक्ति को अपने बारे में बिल्कुल न सोचते हुए केवल समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही खटपट करते रहना चाहिए। व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के संबंध में उन्होंने उसी प्रकार विचार किया, जैसे किसी मशीन के पुर्जे के बारे में किया जाता है। जिस प्रकार कपड़े के थान का एक नमूना देखने से उसी प्रकार के सैकड़ों थान प्राप्त किए जा सकते हैं, उसी प्रकार एक व्यक्ति को नमूना मानकर उसी नमूने के आधार पर ही सब व्यक्तियों का सामूहिक विचार किया जाता है। उनकी दृष्टि में समूह ही प्रमुख चीज है, व्यक्ति का स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं होता।
ये दोनों विचारधाराएं आज पश्चिम में चल रही हैं। एक के अनुसार व्यक्ति नगण्य, समाज ही सब कुछ है। दूसरे के अनुसार एक व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। अब यदि दो व्यक्तियों की स्वतंत्रता में संघर्ष खड़ा हो जाए तब क्या हो? इसके उत्तर में कहा जाता है कि यह तो जीवन का स्थायी संघर्ष है, इसका कोई उपाय नहीं। इस संघर्ष में वही टिकेगा, जिसके पास अधिक शक्ति होगी। प्रकृति का नियम है कि जो योग्यतम है, वह जीवित रहेगा, शेष लोग समाप्त होते चले जाएंगे।
भारतीय कल्पना
किंतु हमारी संस्कृति के अनुसार व्यक्ति और समाज का अभिन्न संबंध होते हुए भी उन दोनों की सत्ता अलग-अलग है। इसलिए हमने दोनों का विचार किया। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की रक्षा के साथ-साथ समाज की सत्ता का भी ध्यान रखने को बताया। कब व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का उपभोग करता है और कब उसे समाज के उपकरण (Instrument) के नाते काम करना पड़ता है-इन दोनों स्थितियों में मेल बैठाने की आवश्यकता है। इसलिए उपनिषदों में कहा है, जो इनमें से एक ही बात का विचार करते हैं, वे ग़लत रास्ते पर चलते हैं। जो लोग केवल व्यक्ति का विचार करते हैं, वे अंधकार को प्राप्त होते हैं तो जो केवल समाज का विचार करते हैं, वे घोर अंधकार को प्राप्त होते हैं। अतः हमें दोनों का ही विचार करना चाहिए। उनका कहना है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करके, उसके व्यक्तित्व का संरक्षण करके, उसे विकास का पूरा अवसर दें हम व्यक्ति को मृत्यु से बचाएं, मृत्यु को जीतें और दूसरी ओर समाज का विचार करके हम समष्टि के आधार पर अमरता को प्राप्त करें। एक से मृत्यु को जीतना और दूसरे से अमरता को प्राप्त करना अर्थात् इन दोनों चीजों का एक साथ मेल बैठाने की दृष्टि से हम लोग विचार करें। उदाहरणस्वरूप रोटी को लें। रोटी जीवन के लिए आवश्यक है, पर उसका यह अर्थ तो नहीं कि रोटी खानेवाले लोग मरते नहीं। पर यदि कोई व्यक्ति यह सोचकर कि रोटी खानेवाले सब लोग एक न एक दिन मर जाते हैं, अतः रोटी नहीं खाऊंगा, उपवास रखना प्रारंभ कर दे तो उसका अंत क्या होगा? निष्कर्ष यह कि न रोटी खाने से अमरता प्राप्त होती है तो जीवित रहने के लिए रोटी खाना आवश्यक है, पर अमर होने के लिए शरीर से सद्कर्म करना आवश्यक होता है। खाना व्यक्ति के शरीर को क़ायम रखने के लिए आवश्यक होता है, किंतु व्यक्ति को अमर होने के लिए समष्टि का सहारा लेना पड़ता है।
प्रकृति और विकृति
इन दोनों का मेल बैठाना आवश्यक है। दोनों का मेल बैठाना ही संस्कृति का मुख्य कार्य है। व्यक्ति को जो प्राप्त होता है, उसे हम प्रकृति कहते हैं। प्रकृति में भिन्नता रहती है और प्रकृति के नाते यह भिन्नता व्यक्ति-व्यक्ति में प्रवेश करती है। प्रकृति की ओर से प्राप्त होनेवाली सब चीजें-हमारा मन, शरीर, इंद्रियां आदि प्रकृति के अनुसार ही चलते हैं। प्रकृति का अपना धर्म है। मनुष्य बहुत से कर्म प्रकृति-धर्म के वशीभूत होकर ही करता है। संपूर्ण जगत् में व्याप्त प्रकृति स्वयं भी अपना काम नियम से कर रही है। चाहे स्वयं प्रेरणा से, चाहे ईश्वर की योजना से किंतु उसका प्रत्येक कार्य नियमपूर्वक होता है। उसी प्रकार मनुष्य तथा शेष जीव-जंतु भी प्रकृति का काम स्वाभाविक रूप से नियमपूर्वक करते जाते हैं। उदाहरणार्थ, स्वासोच्छ्वास प्राकृतिक कर्म है। उसके लिए हमें कोई विचार नहीं करना पड़ता। सांस अपने आप चलती है। साधारणतया मनुष्य प्रकृति के अनुसार कार्य करता है किंतु यदि कभी वह अपनी बुद्धि के अभिमान में, साधारण प्रकृति के पालन में अविचार, अतिरेक अथवा उपेक्षा कर जाता है तो वह अस्वस्थ हो जाता है। उदाहरणार्थ, बढ़िया चीज़ को भी अधिक खा लेने से पाचन शक्ति ख़राब हो जाती है। अतः इस अतिरेक से बचाना चाहिए। इसको ही हम ‘विकृति’ कहते हैं। प्रकृति में जब किसी प्रकार का अतिरेक किया जाता है तो वहां पर विकृति आ जाती है। इस विकृति को रोकना नितांत आवश्यक बात है। विकृति को रोकना प्रकृति को ठीक-ठाक चलाए रखने का काम ‘धर्म’ करता है।
धर्म
धर्म विकृति को रोकता है। इसलिए संस्कृति जिस पहली सीढ़ी से चढ़ती है, वह है धर्म की सीढ़ी। हमारे यहां कहा गया है, “धर्म से ही प्रारंभ है तथा धर्म से धारण है। किसी भी समाज एवं कार्य की धारणा, उसका अस्तित्व धर्म के कारण ही बना रहता है। विकृति के कारण ही सब बुराइयां तथा रोग आते हैं। अपने यहाँ कहा गया है, “जब आदमी मिथ्या आहार-विहार करता है तो उसको रोग लग जाते हैं। यदि हमारा आहार-विहार ठीक रहे, हम प्रकृति के नियमों का ठीक प्रकार से पालन करते जाएं तो रोग होने का कोई कारण ही नहीं। फिर मनुष्य अपनी पूरी आयु प्राप्त करता है। अतः यह बात हमारे यहां धर्म के रूप में समझाई गई है। मनुष्य अपनी प्रकृति के समस्त नियमों का पालन करता रहे, एक-दूसरे के साथ ठीक प्रकार की व्यवस्था रखे, यहां पर वास्तव में धर्म आता है।”
समष्टिगत ‘धर्म’
अब इस धर्म का दूसरा पहलू भी प्रकृति के ही अंतर्गत आता है। प्रकृति के अनुसार जीवन की धारणा करने के लिए कार्य करते समय अनुभव आता है कि अनेक कार्य ऐसे हैं, जिन्हें मनुष्य अकेला नहीं कर सकता। कई लोगों के साथ मिलकर ही वह कार्य हो पाता है। उदाहरणार्थ, एक मनुष्य जो कुछ उत्पादन करता है, अपना पूरा समय उसी में लगा देता है। पर अपने अकेले के उत्पादन से ही तो जीवन की सब आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो जातीं। किसी ने अन्न पैदा किया तो किसी ने कपड़ा। दोनों आपस में बांटकर ही अपनी आवश्यकताएं पूर्ण कर सकते हैं। समाज में परस्पर सहयोग के, दान-प्रतिदान के, आदान-प्रदान के ऐसे अवसर पग-पग पर उपस्थित होते हैं। वास्तव में हमारा संपूर्ण जीवन ही इस लेन-देन के सहारे चलता है। इस लेन-देन एवं पारस्परिक सहयोग की व्यवस्था को ही समाज की व्यवस्था कहते हैं। इस प्रकार दस लोग अपने-अपने व्यक्तियों की रक्षा करते हुए साथ मिलकर चल सकें, ठीक प्रकार से काम कर सकें, उनमें कोई टकराव न हो, इसके लिए कुछ-न-कुछ नियम बनाने ही पड़ते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जैसे सड़क पर मोटरों की टक्कर बचाने के लिए सड़क का नियम (Rule of the Road) बनाया गया है। ये सारे नियम और व्यवस्थाएं व्यक्ति की अपनी प्रकृति की रक्षा के लिए भी आवश्यक है। व्यक्ति को अपने प्राकृतिक हितों के संपादन के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक, दोनों प्रकार के प्रयत्नों की आवश्यकता पड़ती है। अतः समाज जीवन में कुछ व्यवस्थाएं निर्धारित करनी ही पड़ती हैं। ये समस्त व्यवस्थाएं धर्म के अंदर आती हैं। इसमें कहीं भी संस्कृति नहीं आती। यहां तक सब काम धर्म के आधार पर होता जाता है।
संस्कृति और धर्म
किंतु जब हम अपनी व्यक्तिगत प्रकृति का विचार न करके समष्टि का ही विचार करते हैं, व्यक्ति की प्रकृति को समष्टि-प्रकृति अर्थात् समाज का विरोधी न बनाते हुए चलाना चाहते हैं, तब वास्तव में संस्कृति आती है। यह धर्म से एक पग आगे आती है। यह दूसरी सीढ़ी है। इसकी एक ही चिंता रहती है कि व्यक्ति की प्रकृति को समाज विरोधी न बनाते हुए उसे सामूहिक कर्तव्यों द्वारा कैसे स्वस्थ रखा जाए। अतः जहां व्यक्ति निज प्रकृति की कोई चिंता न करके केवल समष्टिगत एवं परार्थ भाव से कार्य करने को प्रवृत्त होता है, वहीं संस्कृति प्रारंभ होती है। संस्कृति के मोटे-मोटे लक्षण देखना ही हो तो हम कोई भी कार्य करते समय विचार करें, यह कार्य निजी स्वार्थ से प्रेरित तो नहीं? अगर उसके मूल में स्वार्थ नहीं है। वह संस्कृति के अनुसार कार्य हुआ। इसका अर्थ यह नहीं कि हम स्वार्थ को पूर्णतया बुरा मान लें। प्रकृति की रक्षा के लिए कुछ अंशों तक स्वार्थ बहुत ही आवश्यक है। वास्तव में स्वार्थी शब्द वहीं ख़राब होता है, जहां अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अन्यों के स्वार्थ को हानि पहुंचाई जाती है। यदि किसी के स्वार्थ को हानि न पहुंचाते हुए अपना स्वार्थ पूर्ण किया जाए तो वह बुरा नहीं। क्योंकि यह साधारण प्रवृत्ति है। किंतु जब हम संस्कृति का विचार करते हैं तो हमें यह देखना पड़ता है कि हमारे कार्य शुद्ध परार्थ भाव से हों। तभी हम कह सकेंगे कि हम अपने कार्य की प्रेरणा संस्कृति से पाते हैं।