रांची।
झारखंड सरकार के मंत्री हफीजुल हसन अंसारी के एक बयान ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में हलचल मचा दी है। चैनल से बातचीत में उन्होंने कहा था, “मुसलमानों के लिए शरीयत पहले आती है फिर देश का संविधान।”
इस कथन के सामने आते ही विवाद छिड़ गया, और मंत्री की सफाई आई— “मैंने ‘मैं’ नहीं कहा, ‘हम’ कहा। मैं मंत्री हूं, हम सब शामिल हैं।”
परंतु सवाल यह उठता है कि – क्या मंत्री के लिए ‘हम’ में शरीयत पहले आता है और संविधान बाद में?
मंत्री की सफाई, पर सवाल बरकरार
हफीजुल हसन ने सफाई में कहा कि उनके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। उन्होंने आगे कहा, “लोग हनुमान जी को अपने दिल में रखते हैं। कहते हैं सीना चीर कर देखिए, हनुमान जी हैं। मैंने भी उसी तरह कहा—दिल में शरीयत है।”
यह बयान सुनने में प्रतीकात्मक भले लगे, लेकिन इसका निहितार्थ गहरा है। जब एक संवैधानिक पद पर बैठा मंत्री यह कहता है कि “दिल में शरीयत है” और संविधान हाथ में, तो क्या यह संविधान की सर्वोच्चता को चुनौती नहीं देता?
भारत धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन संविधान सर्वोपरि
भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है – जहाँ हर व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार जीने की आज़ादी है। लेकिन यह स्वतंत्रता संविधान की सीमाओं के भीतर है।
यदि कोई जनप्रतिनिधि या मंत्री यह कहे कि उसका निर्णय या आचरण शरीयत के अनुसार होगा, तो फिर सवाल उठता है – क्या वह मंत्री देश के संविधान को सर्वोच्च मानता है या किसी धार्मिक कानून को?
यह देश संविधान से चलता है, धर्म से नहीं।
भाजपा सांसद ने जताई चिंता
हजारीबाग से सांसद मनीष जायसवाल ने मंत्री पर निशाना साधते हुए कहा कि अगर उन्हें शरीयत की प्राथमिकता थी, तो उन्हें उसी की शपथ लेकर पद ग्रहण करना चाहिए था। उन्होंने आगे कहा कि अगर हर धर्म का प्रतिनिधि अपने-अपने धार्मिक कानूनों को संविधान से ऊपर रखने लगे, तो देश में अराजकता फैल सकती है।
संविधान: सिर्फ हाथ में नहीं, मन में होना चाहिए
सवाल यह भी है कि अगर कोई जनप्रतिनिधि संविधान को सिर्फ हाथ में थामे, पर निर्णय अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार ले, तो क्या यह जनहित और संविधान दोनों से विश्वासघात नहीं है?
संविधान सिर्फ किताब नहीं, एक आस्था है।
और मंत्री चाहे किसी भी धर्म का हो, उसका पहला कर्तव्य संविधान के प्रति होना चाहिए, न कि किसी धार्मिक कानून के प्रति।
निष्कर्ष:
हफीजुल हसन का बयान केवल विवाद नहीं, मूलभूत संवैधानिक सवाल भी खड़ा करता है।
यदि एक मंत्री संविधान से ऊपर किसी भी धार्मिक कानून को मानेगा, तो वह न केवल शपथ का उल्लंघन करता है, बल्कि धर्मनिरपेक्ष भारत की आत्मा को भी ठेस पहुंचाता है।
जनता मंत्री की भावना को समझना चाहती है –
“संविधान हाथ में और शरीयत दिल में” का अर्थ आखिर क्या है, मंत्री जी?”